Shankhnad by Mahesh Prasad Singh
शंखनाद
“टिकट कब से जनाना-मर्दाना होने लगा, बाबू?”
“मूर्ख, नित्य नियम बदलता है और बदलनेवाले होते हैं मंत्री। दूरदर्शन पर प्रचार हो गया, सभी अंग्रेजी अखबारों में छप गया और इनको मालूम ही नहीं है।”
“तब क्या होगा?”
“पैसे निकालो।”
“कितना?”
“पाँच सवारी के एक सौ पच्चीस रुपए। यों रसीद लोगे तो एक हजार लगेगा।”
“एक हजार! तब छोड़िए रसीद। उसको लेकर चाटना है क्या?” गाँठ खुली, गिन-गिनकर रुपए दिए गए।
“और देखो, किसी को कहना नहीं। गरीब समझकर तुम पर हमने दया की है।”
बेचारे टिकट बाबू के आदेश पर अब प्लेटफॉर्म से निकलने के लिए पुल पर चढ़े। सिपाही पीछे लग गया।
“ऐ रुको, मर्दाना टिकट लेता नहीं है और हम लोगों को परेशान करता है।”
उनमें से सबसे बुद्धिमान् बूढ़े ने किंचित् ऊँचे स्वर में कहा, “दारोगाजी, बाबू को सब दे दिया है।”
दारोगा संबोधन ने सिपाही के हाथों को मूँछों पर पहुँचा दिया, “जनाना टिकट के बदले दंड मिलता है, जानते हो?”
“हाँ दारोगाजी, लेकिन हम तो जमा दे चुके हैं।”
जेब से हथकड़ी निकाल लोगों को दिखाते हुए सिपाही ने कहा, “अरे, हथकड़ी हम लगाते हैं या वह बाबू?”
“आप!”
“तब मर्दाना टिकट के लिए पचास निकालो।”
और पुन: गाँठ अंतिम बार खुली।
—इसी पुस्तक से
Publication Language |
Hindi |
---|---|
Publication Access Type |
Freemium |
Publication Author |
MAHESH PRASAD SINGH |
Publisher |
Prabhat Prakashana |
Publication Year |
2016 |
Publication Type |
eBooks |
ISBN/ISSN |
8188266574' |
Publication Category |
Premium Books |
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